चुनावी चालीसा, किसमें कितना है, दम?
रचना - अनमोल कुमार
मत पूछो जनतंत्र में, बनता कहाँ विधान।
होता है दंगल कहाँ, पूछो यह कल्यान।
मिली जुली सरकार है, करती खींचातान।
बंदर मगर की दोस्ती, कितने दिन कल्यान।
माचिस सम जनतंत्र है, कर दे पैदा आग।
चाहे चूल्हा फूँक लो, चाहे फूँको पाग।
माँगा उनसे वोट जो, दीखी उनको हार।
कहते अपने वोट को, कौन करे बेकार।
भारत के जनतंत्र में, खाती जनता चोट।
धनपति करते राज हैं, जनमत की ले ओट।
बेचें कथा अतीत की, सपनों के वरदान।
वर्तमान में देखते, खुद को वह कल्यान।
बहुमत के प्रतिनिधि बनो, क्या है फिर इन्साफ़।
किए जुर्म संगीन भी, हो जाते सब माफ़।
पद लोलुप नेता हुए, बेच रहे ईमान।
कर के जनता वोट का खुले आम अपमान।
पास हमारे वोट थे, बदले हम सरकार।
हम जहाँ के तहाँ रहे, होते रहे ख़वार।
नेता हैं जो आज के, हैं कच्चे उस्ताद।
तीखे नारे दे रहे, भूल गूँज अनुनाद।
नारी सीमित घरों तक, लोक सभा से दूर।
आधा भाग समाज का, क्यों इतना मजबूर।
ढ़ोल पीट वह कर रहे, खुले आम एलान।
उनके नाम रिज़र्व है, भारत का कल्यान।
जनता की हर माँग को, कर दें नेता गोल।
अपनी नब्ज़ टटोल कर, करते रहे मखौल।।
जिनको अपना समझते, वह रहते थे मौन।
हमें चुनाव बता गया, इन में अपना कौन।
जाती उम्रें बीत थीं, करते पालिश बूट।
अब चुनाव में जीत के, जाते बंदी छूट।।
जनमत के प्रति राम का, देख लिया अनुराग।
इक धोबी की बात पर, दिया सिया को त्याग।
गांधी नेता बन गए, कर के पर उपकार।
कहो बात कल्यान की, मानेगा संसार।
हर दल वोटर से कहे, बीती ताहि बिसार।
फिर से अवसर दे मुझे ला दूँ तुझे बहार।
आज गए थे बूथ पर, दी वोटर ने चोट।
नैतिकता की बात की, डाले जाली वोट।
हर दल को अच्छे लगें, अपने गीत बहार।
कोई कब तक सुनेगा, जनता की मल्हार।
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